सरकार के कामकाज करने की अपनी अदा है। वह अक्सर सबकुछ लुटाकर ही होश में आती है। ताजा मामला संविदा पर बहाल नर्सो का है। पक्की नौकरी की जिस मांग पर नर्से चार दिनों तक हड़ताल पर थीं, उनकी मांग झटके में मान ली गई, लेकिन हड़ताल और मांग मानने के बीच की अवधि में सरकारी अस्पताल में इलाज करा रहे मरीजों को बेहद कठिनाई से गुजरना पड़ा। सरकार को और उसके अधिकारियों को इन मरीजों की कठिनाई का कोई अफसोस नहीं होगा, इसलिए कि चिकित्सा जैसी अनिवार्य सेवा में अक्सर हड़ताल होती रहती है। लोग इलाज के अभाव में मरते रहते हैं। जिम्मेवार लोग शायद यह मानकर चलते हैं कि सरकारी अस्पताल में इलाज कराने वाले नागरिक दोयम दर्जे के हैं। ये मर जाएं या जीवित बच जाएं, सरकार और समाज की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। एक क्षण के लिए भी किसी के मन में यह विचार नहीं आता है कि लापरवाही के चलते जिनकी जान जाती है, वह किसी के आत्मीय होते हैं। उनसे उनका भावनात्मक रिश्ता जुड़ा होता है। कोई परिवार का मुखिया होता है तो ढेर सारे लोग उन पर आश्रित रहते हैं। अमीरी और गरीबी के चलते रिश्ते का भावनात्मक लगाव कम नहीं होता है। परिजन अमीर के हों, गरीब के हों, उनके न रहने की पीड़ा बराबर होती है।
ऐसा नहीं है कि मेडिकल कॉलेज अस्पतालों की नर्से एकबारगी हड़ताल पर चली गई। इससे पहले कई बार उनके संगठनों ने संविदा के बदले पक्की नौकरी की मांग की। ज्ञापन दिए गए। प्रतीकात्मक तौर पर आन्दोलन भी हुए। तब उनकी मांगों पर विचार नहीं किया गया। मांग उस वक्त मानी गई जब बेकसूर लोगों की मौत होने लगी। सरकार ने रविवार की रात जो फैसला किया वह पहले भी हो सकता था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। यह सरासर तंत्र को नियंत्रित करने वाले लोगों में दूरदर्शिता की कमी को इंगित करता है। सब लोग जानते हैं कि नर्सिग चिकित्सा का अनिवार्य अंग है। डाक्टर तो दवा की पर्ची और निर्देश देकर निकल जाते हैं। मरीजों की सेवा की जिम्मेवारी इन्हीं नर्सो पर रहती है। प्रशिक्षित और अनुभवी नर्से डाक्टर की गैर-हाजिरी में लगभग उन्हीं की भूमिका निभाती हैं। इनमें अधिसंख्य महिलाएं रहती हैं। फिर भी शिफ्ट के अनुसार उन्हें रात की भी ड्यूटी करनी पड़ती है। एक तरह से ये सब विपरीत परिस्थितियों में कठिन ड्यूटी करती हैं। काम के हिसाब से बेहतर वेतन और सेवा शर्तो की मांग वाजिब ही कही जाएगी। इन्हें नियमित नर्सो की तुलना में बेहद कम वेतन मिलता है और इनकी नौकरी तो सरकारी अस्पतालों में दाखिल गरीब मरीजों की जान की तरह होती है, जो किसी भी समय चली जाए। यह भी नहीं है कि अस्पतालों में नर्से इफरात में हैं। अकेले पटना मेडिकल कॉलेज में नर्सो के 12 सौ पद स्वीकृत पद हैं, जिनके विरुद्ध सिर्फ दो सौ नर्से स्थायी नौकरी में हैं। संविदा और नर्सिग की छात्राओं के सहारे इस अस्पताल का काम चल रहा है, तब भी इनकी संख्या निर्धारित क्षमता से 225 कम है। यही हाल राज्य के दूसरे मेडिकल कॉलेज अस्पतालों और जिला, सदर और अनुमंडल अस्पतालों का है। जरूरत इस बात की है कि राज्य सरकार नर्सो की समस्या को गंभीरता से ले। इस बात की गारंटी भी करे कि भविष्य में फिर बेवजह हड़ताल की नौबत न आए।